गुरुवार, 29 जुलाई 2010

२९/७/२०१०, गुरुवार

मैं थोडा शांत किस्म का जीव हूँ.

भीड़ भाड़ से  चाहे वो लोगों कि हो या विचारों कि, दूर ही रहना पसंद करता हूँ. लोगों कि भीड़ में मैं असहज महसूस करता हूँ और विचारों कि भीड़ में असामान्य हो जाता हूँ.

लोगों कि भीड़ से मेरा मतलब है उन लोगों कि भीड़ जिन्हें मैं जानता हूँ. अजनबी लोगों कि भीड़ में मैं जरा भी परेशान नहीं होता. बल्कि वहां तो अच्छा लगता है. चुपचाप एक कोने मैं बैठ कर उनकी हरकतें देखो और मजा लो.

ऐसा ही विचारों में भी होता है. जाने पहचाने विचार जो अक्सर दिमाग में आते जाते रहते हैं वो बहुत तंग करते हैं.एकदम नए विचार जरा भी तंग नहीं करते बल्कि उनसे तो खेलने में मजा ही आता है.

ऐसे में जब लोगों कि या विचारों कि भीड़ सताती है तो  मैं क्या करता हूँ? बड़ा सीधा साधा सा तरीका है. अपन तो जाने पहचाने  विचारों से बचने के लिए लिखना शुरू करते हैं और जाने पहचाने लोगों से बचने के लिए दिखना बंद करते हैं.

जाने पहचाने लोगों कि भीड़ में कौन से लोग हैं. सच बताऊँ तो इस भीड़ में वो लोग हैं जिन्हें मैं दिल से चाहता हूँ, जिनसे मैं रोज मिलता हूँ.

क्या करूँ मैं ऐसा ही हूँ. जिन्हें मैं पसंद करता हूँ, जिन्हें मैं प्यार करता हूँ और फलते फूलते विकास करते हुए देखना चाहता हूँ उनसे ही दूर रहने कि मन में चाहत होती है, उनसे ही बचाना चाहता हूँ.  मैं पैदायशी ऐसा ही हूँ. पहले जब मैं छोटा था और कभी घर में मेहमान आते थे तो उनकी आवभगत के बाद जैसे ही सब शांत होता मैं अपनी  छत पर चला जाता था और वहां से अम्मा पिताजी और बड़े भाई आगुन्तक के साथ बतियाते देखता रहता था. मुझे ऐसे बड़ा अच्छा लगता था. दूर से उन्हें देखना. जब भी मेरी कहीं जरुरत होती तो मैं पहुच जाता था हाथ बताने पर अपना काम ख़त्म होने के बाद मुझे सभी लोगों को एक फासले से देखना अच्छा लगता था. आज भी जब मेरे बच्चे अपने खेलों में मगन होते हैं और पत्नी अपने daily soaps में तब मैं दुसरे  कमरे में चला आता  हूँ और अपनी कुर्सी शांत बैठ उनकी दुसरे कमरे से आती शोर गुल कि आवाजें सुनता रहता हूँ. ऐसे ही  घर में जब पत्नी और बच्चे गहरी नींद में सो जाते हैं तो मैं उठता हूँ और अपनी पसंदीदा जगह यानि कि वो कमरा जहाँ कोई नहीं होता वहां आकार बैठ जाता हूँ और फिर कल्पनाओं कि उड़ान शुरू हो जाती है. ये मेरे जीवन के सबसे सुखद क्षण होते हैं जब वो जिन्हें मैं प्यार करता हूँ सुखी होते हैं और मैं उन्हें दूर से देख रहा होता हूँ. (अजीब सी इच्छा है)



 मेरी सबसे प्यारी कल्पना है कि मुझे मिस्टर इंडिया वाली घड़ी मिल जाये जिससे मैं  अदृश्य होकर अपने पसंदीदा लोगों के मध्य ही रहूँ और उनको हँसते खेलते देखता रहूँ और जब उन्हें जरुरत हो तो  उनकी सहायता कर दूँ और  जब बहुत ही जरुरी हो तभी दिखाई दूँ.

पर ऐसा होता नहीं हैं. बच्चे जब सक्रिय रूप से मेरे साथ नहीं खेल रहे होते हैं और  खुद में मस्त होते हैं तब भी वो मुझे  अपने आस पास ही चाहते हैं. पत्नी भी चाहती है कि उनके  सभी कार्यों का निष्पादन मेरे सानिध्य में ही हो. अजीब समस्या है. जब उन्हें मेरी जरुरत हो तब तो उनके साथ रहना ठीक है पर जब उन्हें मेरी जरुरत ना हो तो भी उनके प्यार का बंधन मुझे बांधे रखता है.

ओशो से मैंने सीखा कि प्यार तीन तरीकों का होता है. निम्न श्रेणी का प्यार जिसमे हम लोगों वास्तु समझ कर प्यार करते हैं. दूसरी श्रेणी में हम लोगों को मानव समझते हैं और सबसे श्रेष्ठ प्यार वो है जिसमे हम व्यक्ति को  ईश्वर समझ कर उससे प्यार करते हैं.  अब ये दार्शनिकता अपनी दो वर्षीया बेटी, आठ वर्षीया पुत्र और इन दोनों कि उम्र के योग से तिगुनी उम्र कि पत्नी को कैसे समझाऊ.

16 टिप्‍पणियां:

  1. विचार शून्य होना ही समाधी की स्थिति है।

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  2. @ मुझे मिस्टर इंडिया वाली घड़ी मिल जाये
    पर हमें तो बता दीजियेगा की कौन से रंग के चश्में से नज़र आयेंगें :)

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  3. जो समझाना पडे वह फल्सफा है दर्शन नहीं।

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  4. @ ये मेरे जीवन के सबसे सुखद क्षण होते हैं जब वो जिन्हें मैं प्यार करता हूँ सुखी होते हैं और मैं उन्हें दूर से देख रहा होता हूँ.

    अगर सभी आपकी तरह सुखि होना सीख लें तो संसार की सारी फसाद ही ख़त्म हो जाएँ ......... उत्तम विचार !

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  5. सटिक मंथन!!
    ऐसा ही विचारों में भी होता है. जाने पहचाने विचार जो अक्सर दिमाग में आते जाते रहते हैं वो बहुत तंग करते हैं.एकदम नए विचार जरा भी तंग नहीं करते बल्कि उनसे तो खेलने में मजा ही आता है.

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  6. सबसे श्रेष्ठ प्यार वो है जिसमे हम व्यक्ति को ईश्वर समझ कर उससे प्यार करते हैं.

    भारत में ईश्वर का भी प्रातः जागरण, सुप्रभात, स्नान, भोग, शयन सभी होता है जिसमें भक्त तन्मय होकर आनन्द लेते हैं। जो रस भक्ति में है वह एकाकी ध्यान में कहाँ?

    जिधर देखूं फिजां में रंग मुझको दिखता तेरा है
    अंधेरी रात में किस चांदनी ने मुझको घेरा है।

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  7. "भीड़ भाड़ से चाहे वो लोगों कि हो या विचारों कि, दूर ही रहना पसंद करता हूँ. लोगों कि भीड़ में मैं असहज महसूस करता हूँ और विचारों कि भीड़ में असामान्य हो जाता हूँ.

    लोगों कि भीड़ से मेरा मतलब है उन लोगों कि भीड़ जिन्हें मैं जानता हूँ. अजनबी लोगों कि भीड़ में मैं जरा भी परेशान नहीं होता."
    - यह रिजर्व प्रकृति भले ही कुछ लोगों का स्वाभाविक गुण हो. मैं इसकी प्रशंसा नहीं करता. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे समाज और लोगों के बीच अच्छा लगना चाहिए.

    " मेरी सबसे प्यारी कल्पना है कि मुझे मिस्टर इंडिया वाली घड़ी मिल जाये जिससे मैं अदृश्य होकर अपने पसंदीदा लोगों के मध्य ही रहूँ और उनको हँसते खेलते देखता रहूँ और जब उन्हें जरुरत हो तो उनकी सहायता कर दूँ और जब बहुत ही जरुरी हो तभी दिखाई दूँ."
    - यह वास्तविक परिस्थितियों से पलायन तो नहीं ?

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  8. किसी को कुछ भी ना समझिए ..........ज़िन्दगी बहुत मस्त है बस सब के साथ मिल कर जिए जाइये !

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  9. बन्धु नहीं, आज तो बाबाजी बोलना पड़ेगा।

    मन की ऊहापोह का सही चित्रण किया है। फ़िल्म बेमिसाल का एक गाना सुनियेगा, "किसी बात पर मैं किसी से खफ़ा हूँ", शायद कुछ समरूपता दिखाई दे, कम से कम मुझे तो ऐसा लग्ता है कि जैसे अपने मन की स्थिति हुबहू बयान कर दी हो। चलो, अपनी मशहूरी भी कर लेते हैं, लिंक संभालिये - http://mosamkaun.blogspot.com/2010/02/blog-post_22.html

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  10. आपने तो ब्लॉग्गिंग के ज़रिये ही हमें अपने अंतर्मन की गहराईयों की सैर करा दी , सच में तो इस पोस्ट को पढते-२ एक बार इसमें खो ही गया था , बहुत-२ शानदार प्रस्तुति

    महक

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  11. यह घडी मैं न जाने कबसे ढूँढ रहा हूँ, आपको कैसे मिल जाएगी ??

    पत्नी को कैसे समझाऊँ ?? इसका जवाब है किसी के पास और दे पाया है कोई ...आप वाकई विचार शून्य ही हो :-)

    ओशो के बारे अधिक जानने की उत्कंठा है ...यहाँ लिखो प्रभो ! वैसे मेरी शुभकामनायें स्वीकार करो :-)

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