शनिवार, 26 जून 2010

एकांत,गर्मी, आसमान और मैं.

बहुत दिनों के बाद कल रात अचानक मैंने अपनी फोल्डिंग चारपाई उठाई और जाकर छत पर लेट गया. ये सब अचानक ही हुआ . कुछ पूर्वनियोजित नहीं था. बस यूँ ही मन किया की चलो छत पर जाकर लेटा जाय. असल में कल हमने डिनर जल्दी कर लिया. उसके बाद श्रीमती जी और बच्चे टी वी में मस्त हो गए. बचा में.... खाली और अकेला...... तो मैं भी आपने मनपसंद साथी "एकांत" के पास छत पर चला आया.

पहले मैं गर्मियों में तो हमेशा  ही खुले में सोना पसंद किया करता था. बेशक कितनी भी गर्मी हो मुझे खुले आसमान के नीचे नींद आ ही जाती थी. घर के सारे सदस्य कमरे में पंखे और कूलर के सामने सोते थे पर मै उस तारों भरे नील गगन  के नीचे होता था. जब तक घर में आंगन था तो मैं आंगन में सोता था फिर अपने घर के  आंगन पर छत डाल गयी तो छत पर सोने लगा.  खुले में सोने की मेरी आदत विवाह के बाद बदली. आदत क्यों बदली ये मैं किसी को नहीं बताऊंगा.... राज की बात है..

तो कल एक बार फिर से एकांत था, आसमान था, गर्मी थी और मैं था. आपको तो पता होगा ही की जहाँ मिल जाएँ चार यार वहां रात हो गुलजार. तो ऐसा ही हुआ. मुझे कुछ देर बाद सब अच्छा लगाने लगा. पुरानी यादें वापस आने लगीं. मेरे तीनों दोस्त कुछ बदले बदले से लगे. एकांत तो बहुत  दिनों के बाद मिला था. मैं उससे शिकायत करना ही चाहता था पर पहले वो ही बोल पड़ा की भाई जब से शादी हुई है मुझसे दूर दूर क्यों रहते हो पहले तो मुझे हर हाल में कहीं ना कहीं ढूंढ़ ही लेते थे पर अब अपनी पत्नी और बच्चों में ही मगन रहते हो. हमारी कोई पूछ ही नहीं. मैं क्या कहता. असल में ये एकांत तो मेरे पुराने दिनों का सबसे नजदीकी राजदार रहा है. इसे  क्या कहूँ . मेरी जवानी की कुछ शुरुवाती बदमाशियों का ये साक्षी रहा है अतः कुछ कहते बनता नहीं, चुप रह जाना पड़ता है.

वैसे एकांत इतना बुरा भी नहीं है. ये कुछ पुरानी अच्छी बातें भी याद दिलाता है. मुझे याद आया की जब मैं छोटा था तो हमेशा पिताजी की बगल में लेटता था. उस वक्त पिताजी की बाहं ही मेरा तकिया हुआ करती थी. बड़ा आनंद आता था उनसे तरह तरह के किस्से  कहानियां सुनने में. यार उस वक्त मच्छर भी बहुत तंग करते थे तो पिताजी कहते थे की जब जेठ की लू चलेगी तो मच्छर मर जायेंगे. पर आजकल तो मच्छरों ने भी शायद अपने घरों में ए सी लगवा लिए हैं. साले बारहों मास जिन्दा रहते हैं.

आसमान और गर्मी में एक दुसरे के विपरीत बदलाव आया है. पहले छत पर लेटो तो पूरा आसमान एक अर्ध गोले के रूप में दिखाई देता था पर अब आसमान को देखो तो १५ बाई ३५ का प्लाट सा दिखता है. क्या करूँ मेरे घर के चारों तरफ ठेकेदारों ने चार चार मंजिली फ्लेट बना दिए हैं और बीच में मेरा एक मंजिली मकान जिस की छत पर जाकर भी ऐसा लगता है की कुँए के तले पर खड़ा हूँ. आसमान में तारे तो छोडो पूर्णिमा का चाँद भी नजर नहीं आता . जहा आसमान का विस्तार कम हुआ है वही गर्मी की रंगत में जमकर निखार आया है. गर्मी तो दिन पर दिन बढती चली जा रही है. वैसे मुझे गर्मी से प्यार है. अम्मा कहती थी गर्मी गरीब आदमी का मौसम है. ना पहनने ओढ़ने की चिंता और ना पेट भरने की.  पहनने के लिए कुछ भी नहीं तो चलेगा. कम खाओ और पानी से पेट भरो .  जब खर्च करने के लिए कुछ  ना हो तो गर्मी सबसे अच्छी.

ये महफ़िल यूँ ही चलती रहती अगर बेटा बुलाने नहीं आता की पापा चलो अब सोने का वक्त हो गया है.

तो एक बार फिर से मैं  पुराने साथियों को छोड़ कर वापस अपने परिवार में शामिल हो गया.

14 टिप्‍पणियां:

  1. Aapke saath,saath ham bhi apne inheen sathiyon se mil liye..ekant to khoob rahta hai..aasmaan ki qillat hai!

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  2. @पहले छत पर लेटो तो पूरा आसमान एक अर्ध गोले के रूप में दिखाई देता था पर अब आसमान को देखो तो १५ बाई ३५ का प्लाट सा दिखता है.
    पता नहीं क्यों इसे पढ़कर दिल भारी सा हो रहा है, मानों ये शब्द इन्सान की अट्टालिकाएं खडी करने की फितरत की हँसी उड़ाते हुए अट्टहास कर रहे हैं. वैसे अगर देखा जाये तो जगह की उतनी कमिं नहीं आई है अभी तक अगर रोजगार के अवसर समान रूप से देश के हर हिस्से में पैदा किये जाये तो शहरों की और रुख करने की प्रवृत्ति पर लगाम हो और लोग जहाँ है वहीँ रहें तो नगरीकरण की समाश्या से दो चार नहीं होना पड़े.

    इस एकांत के भी भाव आजकल ज्यादा ही बढ़ गए है और अब तो शायद पेट्रोल की कीमतों की तरह इसके भी खुले भाव होने वाले है

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  3. अच्छा लेख ।पुरानी यादों को संजो कर रखिये ।

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  4. संस्मरण , यादें या व्यंग्य आजकल कि व्यवस्था पर ...सब कुछ है ये लेख ....बढ़िया मन से निकला हुआ ...

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  5. bahut dinon baad koi achcha lekh padhne ko mila.behad suruchipurna aur sateek
    vandana

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  6. दीप,
    आज दिल जीत लिया है तुमने। इतने सहज और सरल तरीके से अपने विचार रखे हैं, छा गये हो। हम तो भाई खुद खुले में सोने वाले बन्दे हैं। आपका लिखा हमेशा अच्छा लगता है और आज तो एक्दम आपबीती लग रही थी, लेकिन इतने अच्छे अंदाज से हम सोच भी नहीं सकते, जैसे तुमने लिख दिया। अम्मा की बात से अब गरमी का मौसम अच्छा लगने लगेगा।

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  7. कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन...इस शहरी करण का प्रभाव हर रोज़ देखता हूँ और अपने हाथों से उनको जस्टिफाई भी करता हूँ अपनी नौकरी के सिलसिले में, लेकिन हर रोज़ कचोटता है मन... धरती का हर रोज़ होता बलात्कार सहन नहीं होता, लेकिन नौकरी ने हाथ पैर बाँध रखे हैं...आपके बयान से वो खोया समय याद आ गया... सोचता हूँ धरती के बलात्कारी भी अगर कभी सोते में खुले आसमान की तरफ देखते होंगे तो सोचते होंगे, क्या माल है! कब मौका मिले और झपट लूँ...
    ख़ैर, आज आपने गुरुदेव गुलज़ार की कुछ लाईनें याद करा दींः
    या गर्मियों की रात जो पुरवाइयाँ चलें
    ठंडी सफेद चादरों पे जागे देर तक
    तारों को देखते रहे, छत पर पड़े हुए.
    दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन....

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  8. विचारणीय पोस्ट है ..( हमेशा की तरह )

    जंगल कल भी थे.... आज भी है ..
    फर्क सिर्फ इतना है की आजकल सीमेंट के होते हैं

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  9. बढ़िया है ये तो...

    ***************************
    'पाखी की दुनिया' में इस बार 'कीचड़ फेंकने वाले ज्वालामुखी' !

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  10. ...तो मैं भी आपने मनपसंद साथी "एकांत" के पास छत पर चला आया. ..

    At some point of life we start loving our solitude. Our truest companion.

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  11. बिलकुल सही सवाल है अमित भाई ... मैं भी दोहरा रहा हूँ

    aapki samadhi kab bhang hogi mahaprabhu!!!!!!!!!!

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  12. आपके दिल्ली मैं तो आसमान दिख भी जाता है, मुंबई मैं तो तरून की छांव, और आसमान के निचे सोना एक सपना सा लगता है...

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