गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

ऊपर की कमाई.

मेरे ऑफिस में मेरे एक सहकर्मी हैं पाण्डेय साहब। मुझे पूरा विश्वास है की वो इस ब्लॉग को कभी नहीं पड़ेगे इसलिए खुल कर लिख रहा हूँ।

pandey साहब ने अपनी सरकारी नौकरी मेरे पैदा होने से भी एक साल पहले शुरू की थी। वो तब २० वर्ष के थे और वो अभी भी दो साल और नौकरी करेंगे। अब इस हिसाब से आप मेरी उम्र बताईये कितनी हुई?

चलिए छोडिये इस बकवास को आगे की बकवास सुने।

मैं पाण्डेय साहब को सन २००८ से जानता हूँ जब मेरा स्थानांतरण Pay & Accounts Office में हुआ। वो अपने क्षेत्र के महारथी हैं। वो विशुद्ध रूप से एक सरकारी बाबु हैं। जब भी वो किसी से कोई बात करते है तो उनके सीधे हाथ की मुठ्ठी आधी बंद होती है और तर्जनी व अंगूठे से वो एक सी का सा अकार बनाकर अपने हाथ को हवा में गोल गोल घुमाते हुए अपनी बात कहते हैं जिसे देख कर ऐसा लगता है की वो हवा में जलेबियाँ तल रहे हैं।

और वो वास्तव में जलेबियाँ ही तलते हैं। कोई भी सीधी बात हो वो घुमा घुमा कर उसकी जलेबी बना देते हैं और सामने वाले को पता ही नहीं चलता की बात का आदि व अंत कहाँ पर है और बेचारा उलझ जाता है। मान लीजिये आपने उनसे पूछा की पाण्डेय साहब सूरज कहाँ से निकलता है तो वो कहेंगे की सूरज पश्चिम से नहीं निकलता, उत्तर से नहीं निकलता, दक्षिण से नहीं निकलता, रात में नहीं निकलता, उनके घर से नहीं निकलता..... अब इतने कठिन सवाल का उत्तर पाना है तो बेटा अपनी जेब से कुछ खर्चा कर तभी बताऊंगा की सूरज कहाँ से निकलता है।


सच्चे सरकारी क्लर्क ऐसे ही होते है। इतनी मेहनत करते हैं वो लोग पैसा कमाने के लिए जिसे आप यों ही ऊपर की कमाई कह देते हो। ऊपर की कमाई को ऊपर की कमाई क्यों कहते हैं इस बात पर मैंने अनेकों बार विचार किया।


इस कमाई से व्यक्ति के रहन सहन का स्तर ऊपर उठता है इस लिए इसे ऊपर की कमाई कहते हैं या यह सामान्य कमाई से ज्यादा होती हैं इसलिए इसे ये नाम दिया गया है। ना .... जी .....ना ....


असल में जब किसी की ऊपर की कमाई शुरू होती है तो उसमे दया धर्म की भावना बढ जाती है। वो मंदिरों के ज्यादा चक्कर लगता है। अक्सर उसके सिर पर जय माता दी वाली लाल चुनरिया बंधी मिलती है और वो आपको अखरोट और मीठी खील का प्रसाद बाटता दिखाई पड़ जाता है। ये कमाई आपको ऊपर वाले के ज्यादा नजदीक ले जाती है इसलिए ऊपर के के कमाई कहलाती है।

मेरी पिछली पोस्टिंग राजस्व विभाग में थी । वहां के अपनी बिरादरी वालों से जब मेरी नहीं बनी तो उन्होंने मुझे विभागीय हिसाब से एक कौने में फैंक दिया जहाँ पर सिर्फ फायलें और धुल भरी थी। उन फायलों के बीच मुझे दो बाजरे और मक्का के दानो से भरे बोरे मिले। छान बिन करें पर पता चला की ये हमारे चपरासी की निजी संपत्ति हैं। मैंने उससे पूछा तो उसने बताया की जब भी उसे १०० रुपये ऊपर के मिलते हैं तो वो १० रुपये का चुग्गा पक्षियों को डाल आता है। मैं उस भाई की धर्म परायणता पर नतमस्तक हो गया। मैंने उससे पूछा की प्यारे यहाँ तो बहुत से रोज हजारों रुपये ऊपर से कमाते हैं वो किसको चुग्गा डालते है। तो वो मुस्काया और बोला की वो तो मछलियों को दाना डालते हैं। बड़ी मछलियों को दाना। सच हैं भाई अगर wetland में रहना हो तो वहां की बड़ी मछलियों और मगरों को तो दाना डालना ही पड़ेगा।

तो दोस्तों उपरी कमाई की कथा अनंत है। ये तो यूँ ही चलती रहेगी.......अनवरत.......हमेशा..........

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

सरकारी नौकरी में सफलता के सात नियम.

एक बार मैंने शायद नवभारत टाइम्स में सरकारी नौकरी में सफलता के सात नियम पढ़े थे। मैं एक सरकारी नौकर हूँ और और अपने सरकारी भाइयों की मानसिकता से अच्छी तरह से परिचित हूँ। हममे से अधिकांश लोग ये समझते हैं की सरकारी नौकरी में वो सफल है जो कुछ काम किये बिना ही तनख्वाह पाता है। इस वजह से ये नियम मुझे हमेश याद रहे और मैं हमेशा ही ये कोशिश करता रहा की कम से कम एक आद नियम को ही अपनी जिंदगी में उतर लू तो शायद मेरा भी कार्यभार कुछ कम हो जाये। चलिए मेरा जो होना है वो होगा पर मैं दूसरों का तो अपने इस अमूल्य ज्ञान से कुछ भला कर दूँ।

मैं आपको ये सातों सुनहरे नियम उदहारण के साथ बताता हूँ। आशा हैं की कुछ अनभिज्ञ सरकारी कर्मचारी इससे लाभ उठाएंगे।

१ बने रहो लुल सैलरी पाओ फुल।
यह पहला नियम है। जब भी आपकी किसी नए विभाग में नियुक्ति हो तो आप एकदम लुल बन जाएँ । लुल मतलब लूले लंगड़े, बीमार, थके हुए एकदम निरीह। जब भी आपका ऑफिसर दिखाई दे तो तुरंत कराहना शुरू कर दे। नयी नयी बीमारियाँ ढूंढ़ लायें । गले में पट्टा बांध लें। बस ऑफिसर को लगाना चाहिए की आपसे ज्यादा बीमार तो कोई और हो ही नहीं सकता। अगर एसा हो गया तो समझ ले आपका मिशन पूरा हुआ। आप आराम से अपनी टेबल पर बैठ कर DA कितना मिलेगा इस पर विचार करें और आपका काम कोई और कर रहा होगा।


२ बने रहो पगला तो काम करेगा अगला।
यह दूसरा नियम है। अब मान लें की आपकी पहली युक्ति काम नहीं आई तो इस नियम का पालन करें। ऑफिसर आपको जो भी कार्य दे उसे ठीक से ना करें । छोटी छोटी बात उससे पूछने जाये। कम अक्ल बने रहने का नाटक करें। आपका प्रदशन जितना अच्छा होगा उतनी ही जल्दी आपको काम से छुटकारा मिल जायेगा।

3 काम हमेशा टालो, सैलरी फिर भी पूरी पालो।
पहली दो युक्तियाँ अगर काम ना आयें और आपको कोई कार्य सौप ही दिया जाये तो काम को हमेशा टालते रहने की तरकीब अपनाएं। आप काम ख़त्म करें या कल सैलरी तो पूरी ही मिलेगी ना। इसलिए आज का कार्य कल और कल का कार्य परसों पर टाल दें। जब आपकी टेबल पर फाइलों का ढेर लग जाये तो कार्य की अधिकता की शिकायत ऑफिसर से करें। आपका आधा काम किसी दुसरे कर्मठ कर्मचारी को दे दिया जायेगा।

४ मत लो टेंसन वर्ना फॅमिली पायेगी पेंसन।
आपके पास फाइलों का चाहे पहाड़ खड़ा हो जाये पर कभी भी उसे ख़त्म करने की चिंता ना करें। उसकी चिंता तो आपका ऑफिसर ही करेगा। आप मौज लें। देर से ऑफिस जाएँ और छुट्टी से एक घंटा पहले ही अपना लंच बॉक्स अपनी टेबल पर रख ले और घर लोटने की तैयारी करें।

५ काम से डरो नहीं पर काम करो नहीं।
कभी भी ये ना दर्शायें की आपको जब भी कोई कार्य सौपे जाने की बात होती है तो आपका दिल धड़कने लगता है। हमेशा ये दिखाएँ की आप वो बहादुर सैनिक हैं जो आगे रहकर लड़ना चाहता है । हाँ ऐन मौके पर कहीं छुप जाएँ पर कार्य कभी ना करें।

६ काम करो या ना करो पर फ़िक्र जरुर करो।
आपके पास करने के लिए कोई काम हो या ना हो पर हमेशा कार्य के लिए फिक्रमंद से दिखने चाहिए। ऑफिसर को हमेशा ये बताते रहें की आपका वो कार्य अभी तक पूरा नहीं हुआ है और आपकी इस वजह से नीद तक उडी हुयी है।

७ और फ़िक्र करो या ना करो जिक्र जरुर करो।
जहाँ भी ऑफिस के चार आदमी खड़े दिखाई दें तो तुरंत अपने कार्यभार का जिक्र करना शुरू कर दें। उन्हें विस्तार से बताएं की कार्य की अधिकता की वजह से आपके दिन का चैन और रातों की नींद उडी हुयी है।

अगर आप इन सात सुनहरे नियमों का पालन करते हैं तो आपकी सरकारी नौकरी निर्विघ्न और बेदाग पूरी हो जाएगी क्योंकि दाग तो तब लगेंगे जब आप कोई कार्य करेंगे । जब कोई कार्य ही नहीं होगा तो गलती की कोई सम्भावन ही नहीं रहेगी और आप लम्बी उम्र और पेंसन के मजे लूटेंगे।

शुभकामनाओं के मेरा यह स्वच्छ सन्देश सब तक पहुचाएं।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

माताओं, बहिनों से मेरा विनम्र निवेदन वो भूकंप ना लायें.

जी हाँ, मैं सभी माताओं व बहिनों से यह विनम्र निवेदन करना चाहता हूँ की वो भूकंप का केंद्र ना बने। मैं तो पूर्वी दिल्ली में रहता हूँ जहाँ भूकंप आने की ज्यादा संभावना है। अतः कमसे कम अपने इलाके की महिलाओ को तो यही सलाह दूंगा की वो पूर्वी दिल्ली को बक्श दें और कोई ऐसा कार्य ना करें की यहाँ भूकंप आ जाये।
आज सुबह के टाइम्स ऑफ़ इंडिया के पृष्ट संख्या १७ के उस स्थान पर जहाँ पर बिकनी पहने एक अत्यंत भद्र महिला का अति सुन्दर चित्र छपा है , के ठीक नीचे एक छोटी सी खबर छपी है जिसमे लिखा है:

A senior Iranian Cleric says many women who do not dress modestly lead young men astray, corrupt their chastity and spread adultery in society, which increases earthquakes।


मुझे तो लगता है की global warming के लिए भी इस तरह की स्त्रियाँ जिम्मेदार हैं। अरे वो जब कम कपडे पहनती हैं तो आस पास की फिजा गर्म हो जाती है।

इसलिए मैं सभी माताओं बहनों से दुबारा निवेदन करूँगा की वो ऐसा कोई कार्य ना करें की धरती पर कोई भूकंप ए।

धन्यवाद।

( मेरी अपील सिर्फ माताओं और बहिनों से थी। ये पॉइंट नोट किया जाय। )

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

मुझे चुप रहने की सलाह और उसे खुला घुमने की छुट.

अभी सुबह अपने बच्चे को स्कुल छोड़कर घर आ रहा था तो मेरे साथ एक घटना घटी जिससे मुझे हमारे समाज के लोगों की मानसिकता का एक नया उदहारण मिला.

मैं स्कुल के सामने से अपनी बायीं तरफ स्कूटर पर आ रहा था तो सामने से बड़ी तेजी से आ रहा एक मोटर साईकिल सवार अपनी साइड छोड़कर अचानक मेरे सामने आ गया और मेरी उससे टक्कर होते होते बची। मुझे उस पर बड़ा गुस्सा आया। मैंने उससे कहा की तुने गलती की है, तू अचानक अपनी साइड छोड़कर मेरे सामने आ गया वो भी इतनी तेज स्पीड में । क्या तुझे सड़क पर चलने की तमीज नहीं है।

मैंने उसे ढंग से चलने की सलाह दी तो वो अपनी गलती समझने के बजाये मुझ पर ही बरस पड़ा।उसने मुझे सड़क पर बना स्पीड ब्रेकर दिखाया और बोला की ये स्पीड ब्रेकर यहाँ बना हुआ मैं स्पीड में था तो बताओ इस स्पीड ब्रेकर से टकराकर अपनी जान दे देता। तुम्हारी तरफ से ये थोडा प्लेन है इसलिए मैं अपनी साइड छोड़कर उलटी तरफ से ले जा रहा था तो कोई गुनाह कर दिया। ये तो तुम्हे देखना चाहिए था की मुझे खुद रूककर निकालने की जगह दे देते।

हमारी इस बहस को सुनकर वहा पर भीड़ इक्कठी हो गयी थी। लोगों ने मुझे समझाया की ये तो नया लड़का है। गर्म खून है। नयी नयी मोटर साइकिल है इसकी। तेज चलाना चाहता है। अब ये स्पीड ब्रेकर बनाकर क्या एक्सिडेंट रुकते है। एक्सिडेंट तो होते रहेंगे। क्यों झगडा बढ़ाते हो बात यहीं ख़त्म कर दो। कुछ लोगों ने उस जगह से स्पीड ब्रेकर हटाने की बात की। मुझे देर हो रही थी अतः मैं उस जगह से चला आया। पर इस घटना ने मुझे फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया।

हमने स्पीड ब्रेकर बनाये हैं उन लोगों पर नियंत्रण करने के लिए जो अंधाधुन्द अपनी गाड़ी चलते हैं और दूसरों से आगे निकालने की फ़िराक में सभी की जान जोखिम में डालते है। पर हमारे समाज के लोग तेज गाड़ी चलने वालों की गलती नहीं निकलते बल्कि स्पीड बर्केरों को ही हटाने की बात करते हैं और तर्क देते हैं की स्पीड ब्रेकर बनाने से क्या एक्सिडेंट होने ख़त्म हो जायेंगे। अरे ख़त्म नहीं होंगे तो काम तो हो जायेंगे ना। जहा दस लोग मरते वहां अगर एक भी बचाता है तो क्या कुछ गलत है।

देखो गलत ढंग से चलने वाला तो चाहेगा ही की जो सही ढंग से गाड़ी चला रहा है उसकी चाहे जान जोखिम में रहे पर उसे तो तेज गाड़ी चलने का मौका मिलता रहे। और हमारा समाज भी उसका ही साथ देता है। मैं सही था। अपनी साइड में स्कूटर चला रहा था और तेज भी नहीं था शायद इसलिए ही सही वक्त पर ब्रेक लगाकर बच गया। और वो मोटर साइकिल वाला तेज चल रहा था और गलत दिशा से आ रहा था पर सभी लोगों ने मुझे शांत रहने की हिदायत दी और उस मोटर साइकिल वाले के पक्ष में सड़क से स्पीड ब्रेकर ही हटाने की मांग करने लगे।

मुझे बड़ा दुःख हुआ हमारे समाज में व्याप्त इस मानसिकता पर। जाने क्यों मुझे हमारे सुपरस्टार शाहरुख़ खान की याद आ गयी। माय नेम इज खान बनाने से पहले उन्होंने भी इसी तरह का शोर मचाया था की उनकी स्पीड को हवाई अड्डे पर लगे स्पीड ब्रेकर ने रोक दिया । इसी तरह से हमारे भारत में भी बहुत से अंधाधुन्द चलने वाले लोगो को नियंत्रित करने के लिए स्पीड ब्रेकर बनाये जाते हैं पर हमारे समाज के कुछ लोग उनका विरोध करते हैं । कहते हैं की इससे लोगों के अधिकारों का हनन होता है।

क्या मेरी तरह से सही चलने वाले लोग इस समाज में यों ही चुप रहने की सलाह पाते रहेंगे और दूसरों की भावनाओं का ख्याल ना रखने वाले यों ही खुले घूमते रहेंगे.

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

इन्टरनेट के बिना गुजरे ये दिन.

जब से मैंने अपने घर पर ही इन्टरनेट की सुविधा का जुगाड़ किया है तब से मेरा घर से निकलना ही ख़त्म हो गया है। लगभग सारे रिश्तेदार और दोस्त किसी ना किसी रूप में नेट से जुड़े है। चाहे घर हो या ऑफिस सभी इन्टरनेट का इस्तेमाल करते हैं अतः जब से मैंने अपने घर में नेट लगवाया तो मुझे किसी से उसके घर जाकर मिलाने की जरुरत ही नहीं रही।

वैसे मैं तो पहले भी घर घूस ही कहलाता था क्योंकि मैं हमेशा घर में ही घुसा रहता था। मेरे पत्नी को भी मुझ से यही शिकायत थी की मैं उनके साथ कहीं घुमने या फिल्म देखने नहीं जाता। घर से ऑफिस और ऑफिस से घर। छुट्टी के दिन भी घर पर रहकर नए पुराने अख़बार चाटना, इधर उधर से इकठ्ठा की हुई किताबें पढना और थक कर सो जाना , यही मेरी दिनचर्या होती थी । मेरी इस मानसिकता से इन्टरनेट एकदम मेल खता है। आपको कहीं जाने की जरुरत नहीं। आप अपनी मेज पर बैठे ही सारी दुनिया से जुड़े रहते हैं। इस नेट पर सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। लगता है की सारी कायनात एक चटके (क्लिक ) पर उपलब्ध है।

इतने कम समय में ही मैं इस सुविधा का इतना आदि हो गया हूँ की पिछले चार दिन जब मेरा नेट कनेक्सन नहीं जुड़ा तो मुझे ऐसा लगा की मैं किसी जेल के एकाकी कक्ष (isolation chamber) में पड़ा हूँ जहाँ मैं किसी से बात नहीं कर सकता और सबसे जरुरी बात , अपने विचार किसी दुसरे तक पंहुचा कर खुद को हल्का नहीं कर सकता।

मेरी नजर हमेशा मोडम की टिमटिमाती बत्तियों पर ही टिकी रही की कब लिंक वाली बत्ती स्थिर होगी और मैं उस आभासी दुनिया से जुड़ पाउँगा जो की इस दुनिया के सामान ही वास्तविक है। कभी कभी तो मुझे ऐसा लगा की मैं इस नेट के जाल में फसा जीव हूँ जो खुद को मुक्त समझता है पर वास्तविकता में वह मोह के बंधन में जकड़ा होता है। ( फिर से बेकार की बकवास)

जब मैं नेट कनेक्सन ले रहा था तो मेरे एक मित्र जो प्रकाशन तथा विज्ञापन से जुडी एक फर्म चलते हैं , ने मुझे राय दी की मैं MTNL का कनेक्सन ना लूँ पर मेरी मति मरी गयी थी। मैंने सोचा चलो इस बहाने देशभक्ति ही हो जाएगी। मुझे क्या पता था की मैं किसी सरकारी फर्म का समर्थन नहीं कर रहा मैं तो कामचोर लोगों को उनकी दुकान चलने का एक और मौका दे रहा हूँ। मेरा नेट चार दिन में पचासों जगह फोन करने और कईयों की खुशामद करने के बाद ठीक हुआ है।

अब तो बस दिल यही कहता है:

दीप अल्टरनेट कछु रखिये, इन्टरनेट बिन सब सून ।

( आज मुझ पर भगवन की कृपा हुई और मैं इस दुनिया में फिर से अपना अस्तित्व पा गया)

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

राहुल बाबा मैं भी अब मैं भी बाबा बन जाऊंगा.

आदरणीय राहुल बाबा,

कांग्रेसी संस्कृति का अनुसरण करते हुए मैं तुमको साष्टांग दंडवत प्रणाम करता हूँ।

तुम्हारी और मेरी बराबरी कभी नहीं हो सकती है।

तुम अर्श पर हो तो मैं फर्श पर हूँ।

तुम एक महारानी के बेटे और में एक मजदुर का बेटा।

हम दोनों पैदा तो इस दिल्ली मैं ही हुए पर तुम जब अपने नन्हे कदम दुनिया नापने के लिए आगे बढ़ा रहे थे तब मैंने इस दुनिया में कदम रखा। ( अरे सीधे बोल बोलूं तो मैं तुमसे डेढ़ साल छोटा हूँ।)

तुम पढने देहरादून के पहाड़ों में गए और मेरे माँ बाप तो पहाड़ों को छोड़कर ही तो दिल्ली आये थे अतः मैं यही पढ़ा तुर्कमान गेट के ऍम सी डी प्राइमरी स्कूल में।

उच्च शिक्षा हेतु तुम बहुत दूर गए (अरे भाई सात समुन्दर पार ऑक्सफोर्ड में ) पर तब तक तो मैं पढाई से बहुत दूर हो गया था ।

तुम अख़बारों की सुर्ख़ियों में छाये रहे और उन्ही अख़बारों को मैं बेचता रहा।

तुम आज भी तरोताजा हो, एकदम युवा हो , कुवारे हो और मुझे अपना कोमार्य अपनी पत्नी को सोपें हुए एक दशक बीत गया है।

तुम अभी भी बच्चे हो और मैं दो बच्चो का बाप बन बुढ़ा गया हूँ।

मैं कभी भी तुम्हारी बराबरी नहीं कर पता अगर मेरे प्रिय भतीजे ने यह कारनामा ना कर दिखाया होता। पिछले वर्ष ही उसकी शादी हुई है और अब शुभ समाचार आया है की वो बाप और मैं बाबा बन जाऊंगा।

तो राहुल बाबा तुम तो बचपन से ही बाबा थे पर मुझे तो अब मौका मिलेगा बाबा कहलाने का। चलो शब्दों में ही सही कहीं तो तुमसे बराबरी की।

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

दंड

"अरे ! तू आज भी लेट हो गया !", राजीव ने फाइलों के ढेर से बहार झाँका, " कम से कम आज तो टाइम पर जाता।

पता है यार आज नए अफसर ने आना है, पर इसका मतलब ये तो नहीं की नौ बजे ही आकार उसके स्वागत के लिए खड़े हो जाएँ", मैंने अपना बैग अलमारी में रखा और पानी का गिलास लेकर वाटर कूलर का रुख किया, "पहला दिन है, वो आराम से ही आयेगा, बारह एक बजे तक। "

बारह एक बजे तक," फाइल बगल में दाबे शर्मा जी ने कमरे में प्रवेश किया, "साहब तो ठीक सुबह नौ बजे ही गए थे और प्यारे तुम्हारा ही इंतजार हो रहा है, जाकर अपनी शक्ल दिखा लो", शर्मा जी ने व्यंगपूर्ण स्वर में कहा।

"पहले दिन ही सही वक्त पर गए", मेरे मन से बेफिक्री का भाव जाता रहा, "लगता है ये भी कालू की ही तरह से सख्त है", हमारे पुराने ऑफिसर को हम कालू के उपनाम से बुलाते थे। वो अनुशासन प्रिय व्यक्ति हममे से किसी को पसंद नहीं था।

मैं वाटर कूलर पर गया। ठंडा पानी पीकर ठन्डे दिमाग से सोच विचार किया। नए साहब को शक्ल तो दिखानी ही पड़ेगी। मैं पुरे दो घंटे लेट था। सनकी ऑफिसर हुआ तो पहली मुलाकात में ही देर से आने के लिए डाट खानी पड़ेगी। क्या बहाना बनाऊं ? मंदिर गया था इसलिए लेट हो गया। वैसे गया तो मंदिर ही था लेकिन अगर चाहता तो मंदिर जाकर भी समय पर ऑफिस पहुच सकता था , पर लापरवाही और बेफिक्री की वजह से इतना लेट हो गया था। मैंने सोचा ना था की नया ऑफिसर पहले ही दिन टाइम पर जायेगा। खैर निचले कर्मचारियों को तो डाट खाने की आदत होती है, चाहे उन्होंने गलती की हो या ना, और यहाँ पर तो मेरी गलती है ही तो डरना क्या ये सोच कर मैं ऑफिसर के कमरे में घुस गया।

"हाँ जी कहिये", सामने कुर्सी पर बैठे महानुभाव ने मुस्कुराते हुए पूछा। इस आदमी में मुख पर बच्चों सी भोली मुस्कान थी। इस मुस्कान को देखकर मैं थोडा सहज हो गया।

"सर !.. मैं,.... अनिल विश्वास,LDC " मेरे गले से दबी दबी आवाज निकली।



" अनिल विश्वास ?.... अच्छा! अच्छा !.....बैठो! , क्या बात हुई काफी लेट हो गए? ", स्वर में जरा भी कड़वाहट नहीं थी।



"सर वो आज मंगलवार है ना ! मैं हर मंगलवार को सुबह हनुमान मंदिर जाता हूँ ..... इस वजह से लेट हो गया," मुझे अपनी गलती का अहसास था इसलिए मन में थोड़ी घबराहट थी।



"यह तो बहुत अच्छी आदत है। मैं खुद भी हर मंगलवार को कनाट प्लेस के हनुमान मंदिर जाता हूँ ", नए साहब ने फिर अपनी निश्छल भोली मुस्कान बिखेरी।"मेरे बारे में तो तुम्हे पता चल ही गया होगा , मैं हूँ भास्कर जोशी, यहाँ का नया प्रशासनिक अधिकारी" ,अब जोशी जी की मधुर मुस्कान हंसी में बदल गयी थी



जोशी जी ने देर से आने के लिए कुछ नहीं कहा यह मेरे लिए रहत की बात थी। मेरे विचार में अगर गलती करने वाले को अपनी गलती का एहसास हो और वो शर्मिंदा हो तो उसे डाटना नहीं चाहिए बल्कि अपनी भूल सुधारने का मौका देना चाहिए। डाटने से तो इसी स्थिति में बात बनाने की बजाये बिगड़ जाती है। जोशी जी ने बड़ी सफाई से मुझे ये दर्शा दिया की वो भी मंदिर जाते है और लेट भी नहीं होते। जोशी जी की यह बात मुझे अच्छी लगी। वो मुझे सीधे सच्चे और सुलझे हुए इन्सान लगे।



पहली मुलाकात में मैंने जोशी जी के विषय में जो राय कायम की वो धीरे धीरे पक्की होती चली गयी। अपने सीधे सरल व्यव्हार से जोशी जी ने मेरा ही नहीं बल्कि सबका दिल जीत लिया। ऑफिस का हर छोटा बड़ा आदमी उनका प्रशंसक बन गया।



"भाई जोशी जी जैसा ऑफिसर नहीं देखा! अफसरी की जरा भी बू नहीं है इनमे। फाइलों को जरा भी नहीं रोकते। एकदम निबटा देते हैं। ", जब भी शर्मा जी फाइलें लेकर जोशी जी के कमरे से लोटते तो आते ही घोषणा करते।



"मुझे भी बार बार तंग नहीं करते है। इतने शरीफ हैं की गिलास लेकर खुद ही वाटर कूलर पर पानी पीने पहुच जाते है।", हमारा चपरासी अक्सर बताता।



"जोशी जी की सबसे अच्छी आदत यह है की वो शाम को जल्दी जाने से रोकते नहीं हैं ", मिसेज विमला ख़ुशी से चहकतीं।

"पहाड़ी लोग शरीफ होते है। जोशी जी पहाड़ के आदमी हैं। " बहुगुणा जी गर्व के साथ कहते

हर व्यक्ति के जोशी जी को पसंद करने के कारण अलग-2 थे पर सभी लोग जोशी जी को पसंद करते थे।

मैं थोडा शक्की किस्म का आदमी हूँ। मेरे लिए कोई आदमी सिर्फ इसलिए अच्छा नहीं हो सकता की वो मेरे फायदे की बात करता है। मैं उस आदमी को अच्छ समझता हूँ जिसमे वास्तव में अच्छे गुण हैं। अतः मैंने जोशी जी को शुरू में बारीकी से परखा। जोशी जी वास्तव में एक सच्चे सरल इन्सान थे। कोई एब नहीं , कोई बुराई नहीं। अपने काम से काम रखना ना किसी को तंग करना , ना किसी को अपनी अफसरी को रोब दिखाना, कोई व्यर्थ का झंझट नहीं था उनमे। कहा जाता है की पद का मद अच्छे व्यक्ति को भी बदल देता है और जोशी जी तो निचे से उठकर इस अवस्था तक पहुचे थे पर भास्कर जी में घमंड का नामोनिशान तक नहीं था। वे एक सच्चे संत ह्रदय व्यक्ति थे।

जोशी जी के आने के बाद आफिस का माहोल अच्छा हो गया था। किसी को कोई व्यर्थ की परेशानी नहीं थी। यों ही मजे में समय बीत रहा था। एक दिन सुबह जब मैं बस स्टैंड से आफिस की तरफ रहा था तो मैंने देखा की एक पागल से लड़का बीच सड़क मैं जोशी जी को थप्पड़ पर थप्पड़ मारे जा रहा है और जोशी जी असहाय से उसे किनारे ले जाने का प्रयत्न कर रहे हैं। मैं दोड़ कर वहां पंहुचा और उस लडके को गुस्से में तीन चार थप्पड़ रसीद कर दिए। इतने में जोशी जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया।


" अनिल ये मेरा बेटा है, इसे मत मरो बस किसी तरह से आफिस ले चलो वहां सारी बात बताऊंगा।" जोशी जी ने विनती भरे स्वर में कहा। थप्पड़ खाकर वो लड़का कुछ शांत सा हो गया था। हम आसानी से उसे आफिस ले आये।



यह जोशी जी का इकलोता लड़का था। तीन लड़कियों के बाद हुआ पुत्र जिसे बड़े लाड प्यार के साथ पाला गया था। इंजीनियरिंग के लिए बंगलौर गया पर जाने क्या गड़बड़ हुई की इंजिनियर की डिग्री के बजाय पागलपन का सर्टिफिकेट लेकर वापस लौटाजोशी जी के सपने बिखर गएसोचा था बाप का सहारा बनेगा पर यह तो उन्माद में बाप की ही पिटाई कर देता था


"जाने किस जन्म का बैर निकल रहा है", जोशी जी की ऑंखें भर आई, " ना खता है ना पीता है बस यों ही गम सुम सा घर में बैठा रहता हैकुछ पूछो तो मरने दोड़ता हैसब जगह दिखा लिया, तरह तरह के इलाज करवा लिए कोई फायदा नहींकुछ दिनों से शांत था , सोचा यहाँ आकार इसका कुछ मन बहल जायेगा तो साथ ले आयाइसके बाद जोशी जी अक्सर ही अपने लडके को अपने साथ ऑफिस ले आतेवो सारा दिन कोने में एक कुर्सी पर शांत बैठा रहतायहाँ तो वो शांत रहता था पर अपने घर में पागलपन के दौरे में किये गए कार्यों के निशान हमें अगली सुबह देखने को मिल जातेकभी गुस्से में कांच का गिलास दीवार पर दे मारा और हाथ जख्मी कर लियाकभी दीवार पर सर पटका और माथे पर नीला गुमड निकल आयाजो भी हो वो खुद को शारीरिक और अपने घर वालों को मानसिक पीड़ा पहुचता रहता थाउसकी काले गड्ढों में धंसी और नींद ना आने की वजह से लाल हुयी आंखे बड़ी भयानक दिखती थींउसे देख कर जोशी जी के दिल पर क्या बीतती होगी?


कई लोगों ने जोशी जी को समझाया भी की लडके को ऐसे में घर पर रखना ठीक नहीं, अस्पताल में भारती करवा दो पर वो एसा नहीं कर पाएअस्पताल में लडके की दुर्दशा देखकर वो अपने लडके को घर वापस ले आये और घर पर ही इलाज करवाना शुरू कर दियाइसी अवस्था में भी जोशी जी शांत संयत दिखतेउनके दिल की पीड़ा उनके चेहरे पर नहीं झलकती थीकहते हैं की व्यक्ति के चरित्र की परीक्षा कष्ट आने पर ही होती हैमेरे ख्याल से एक पिता के लिए जवान लडके को इस प्रकार दुःख भोगते हुए देखने से ज्यादा कश्कर बात एक पिता के लिए और कुछ नहीं हो सकतीइन परिस्थितियों में जोशी साहब का संयम काबिले तारीफ था


लंच के दौरान अक्सर लोग जोशी जी के दुर्भाग्य की चर्चा करतेकोई कहता बेचारे बड़ी लगन से अपने पुत्र की सेवा कर रहे हैं और उनकी हिम्मत की दाद देताकोई उनके पुत्र मोह को ही परेशानी की जड़ बताकर लडके को पागलखाने में भर्ती ना करवाने के लिए जोशी जी को दोषी ठहरातापर अंत में एक बात पर सभी सहमत होते की जोशी जी एक अच्छे आदमी हैं और यह कलयुग जोशी जी जैसे लोगों के लिए नहीं हैइस ज़माने में सिर्फ भ्रष्ट लोग ही पनप सकते हैंईश्वर भी सच्चे नेक इंसानों को ही कष्ट देता हैइस तरह से सारा दोष जोशी जी की अच्छाइयों पर ही मढ़ दिया जाता


क्या वास्तव में सीधे सच्चे इमानदार लोग इस दुनिया में सुखी नहीं रह सकते? क्या अच्छे कर्म करने वाले व्यक्ति की भगवन इसी तरह से परीक्षा लेते रहते हैंये प्रश्न मेरे मन में बार बार उठते रहते। लोगो के विचार सुनकर मेरा मन भरी हो जाताजोशीजी का उदहारण देखकर लगता की सच्चाई की राह पर चलाना बड़ा कठिन काम है और दुखदायी भीभगवान जबरदस्ती ही दुखों का टोकरा परीक्षा के नाम पर आपके सर पर लाद देते हैंइससे तो अच्छा है की आदमी झूट बोले , चोरी करे, इर्ष्या करे, रिश्वत ले, सरे गलत काम करे और सुखी रहेक्या जरुरत है अच्छा बनकर दुःख झेलने की


मेरा यह मानना था की जो दुःख परेशानियाँ हमारे जीवन में आती हैं वे सब हमारे ही कर्मों का फल होती हैं जिन्हें हमने जाने अनजाने में किया हैअगर हम गलत कार्य करेंगे तो हमें कष्ट भोगने ही होंगे पर जोशी जी को देखकर लगता की हम भले ही बुराई से बचे और अच्छाई के रास्ते पर चलें पर दुःख तो जीवन में आने ही हैंकर्मफल के रूप में ना सही परीक्षा के रूप में ही सही दुःख तो आएंगे ही


कुछ समय बीता जोशी जी के लडके की हालत में सुधर दिखाई पड़ने लगाअब उसके दौरे पड़ने काम हो गए थेअपने पुत्र की हालत में सुधार होते देख जोशी जी भी संतुष्ट नजर आते थेलगा अब उनके परीक्षा के दिन पुरे हो चले हैं


पर शायद जोशी जी की परीक्षा कुछ ज्यादा ही कठोर थीएक सुबह जब मैं अपने ऑफिस रहा था तो मुझे रास्ते में ही शर्मा जी मिल गएमिलते ही वो बोले, "अनिल जोशी जी के घर से खबर आयी है, कल रात उनके लडके की छत से गिरकर मृत्यु हो गयी है।" मुझे एक झटका सा लगामैं शर्मा जी के साथ जोशी जी के घर पंहुचावहां का वातावरण बहुत ग़मगीन थालडके की अर्थी तैयार की जा रही थीपता चला शाम को अचानक वो छत पर चला गया थाजोशी जी भी पीछे गए की कहीं गिर ना जाये पर होनी को कौन टाल सकता थावापस उतरते वक्त लडके का पाँव फिसला और वो निचे गिरागिरते ही बेचारे के प्राण निकल गएजोशी जी की आँखों के सामने ही उनका जवान पुत्र चला गया


सारी रात जगे रहने और शायद आँखों के आसुओं को रोके रहने से जोशी जी की आखें लाल thi . सारे का सारा दर्द उन्होंने अपने ह्रदय में ही समेट लिया थाअब तक उनके सारे रिश्तेदार परिचित इकट्ठे हो चुके थेजोशी जी ने सभी अंतिम रस्मों को शांत भाव से पूरा कियाजब उन्होंने लडके की अर्थी को कन्धा दिया तो वहा उपस्थित सभी लोगों की आखें भर आयीजिस पुत्र को अंतिम समय अपने पिता को सहारा देना चाहिए था आज वही अपने पिता कंधे पर अपनी अंतिम यात्रा पर जा रहा था


पहाड़ी लोगों की रिवाज है की वो शव के पूरी तरह जल जाने के पश्चात् ही घाट से बापस लोटते हैंअतः सभी लोग आस पास ही बैठ कर शवदाह के पुरे होने का इंतजार करने लगेमैं भी थोडा दूर हट कर एक पीपल की छाव के नीचे बैठ गयाजोशी जी पुत्र की चिता के समीप ही सर झिकाए बैठे थेशायद पुत्र से सम्बंधित यादों का चलचित्र उनकी आँखों के सामने चल रहा था जिसमे वो खोये थे


मैं पीपल के छाव मैं बैठा था और सोच रहा था की जोशी जी के साथ ऐसा क्यों हुआ? उन्होंने ऐसा क्या भरी अपराध किया था जिसकी यह सजा थी या फिर ये कोई कठिनतम परीक्षा थीसोच सोच कर मेरा सर भरी हो गयामैं अभी इन विचारों में मगन ही था की एक बुजुर्ग मेरे पास आकार बैठ गएये शायद जोशी जी के कोई निकटवर्ती रिश्तेदार ही थे


"बेचारा !.... क्या भाग्य पाया है इसने भी.... आँखों के सामने जवान जहान बेटा चला गयाकैसा दुर्भाग्य है? ", बुगुर्ग की आखें जोशी जी पर ही टिकी थीं


"हूँ ....... " मैंने सहमती में अपना सर हिलाया


"इसे ही तो कलयुग कहते हैं बेटाइतना सीधा आदमीं और एसा दुःख भोग रहा है। " उस वृद्ध की आंखे आकाश के शुन्य से बीती हुयी यादों को कुरेद रहीं थीं। "इस लडके को पाने की लिए भास्कर ने क्या नहीं कियातीन लडकियां हो चुकी थीमन में लड़के की आस थीकहाँ नहीं गयाकितने डाक्टरों के चक्कर काटेअल्ट्रा साउंड करवाएतीन और लड़किया थी उनको गिरवाया तब जाकर सातवीं संतान ये लड़का हुआ जो आज छोड़कर चल दियाइतनी कठिनाई से ये लड़का मिला था जो यों बीच रास्ते में छोड़कर चल दियाकितना भरी दुःख हैभास्कर से जाने क्या अपराध हुआ होगा जिसका ये दंड भोग रहा है?"


पता नहीं उन वृद्ध को अपने भास्कर का अपराध पता चला या नहीं पर उनकी बातें सुनकर मुझे मेरे दिल को तसल्ली देने के लिए एक सहारा मिल गया था